अमीर-गरीब, पूंजीवाद-साम्यवाद, परिग्रह-अपरिग्रह के वैचारिक द्वंद्व से कोई भी देश अछूता नहीं है। यह बहस कहीं चिंता पैदा कर रही है तो कहीं चिंतन के लिए बाध्य कर रही है। कहीं टकराव इसका आदि बिंदु है तो कहीं निराकरण की खोज का प्रयास है। ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। यह सिलसिला विकास के समानांतर कदमताल कर रहा है। विषमता के खिलाफ हर काल में आवाज़ उठाई जाती रही है. पर किसी निश्चित परिणाम पर पहुंचे बिना भीड़ तितर-वितर हो जाती है। महावीर इसे मूर्छा के रूप में देखते थे। वे तो यहां तक कहते थे मूर्छा परिग्रह का आत्मपक्ष है। शोषण, वैषम्य और अन्याय उसका लोक पक्ष है। उससे समग्र लोक जीवन उत्पीडित होता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से जुड़ा है, जन्म से मरण तक। उसकी व्यक्तिमूलक सत्ता भी समाज के ही सन्दर्भ में है, क्योंकि उसकी समष्टि ही समाज है। समाज से मुक्त वही है जो अपने व्यक्ति से ही मुक्त हो गया, जिसका कुछ व्यक्तिगत रहा ही नहीं। अतः समाज के साथ व्यक्ति का आदान-प्रदानमूलक संबंध अनिवार्यतः रहता ही है। इस स्थिति में अगर वह समाज के अहित का कारण बनता है तो वस्तुतः अपने ही अहित का निमित्त बनता है क्योंकि समाज तो उसी व्यष्टि का समवाय है। समष्टि अगर पीड़ित है तो व्यष्टि उस पीड़ा को अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में भोगती है।
एक कथा है कि दधीचि ऋषि की अस्थियां मांगकर इंद्र ने वज्र बनाया। दधीचि ने समष्टि-हित के लिए देह-त्याग किया। दधीचि के पौत्र ने अपनी मां से यह घटना सुनी। वह बहुत कुपित हुआ कि देवों ने वृत्रासुर को मारने और अपने हित के लिए उसके दादा का जीवन ले लिया। तब उसने भी देवों के विनाश का प्रण ले लिया। तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया। वरदान मांगा, ‘सारे देवता जल जाएं।’ शिव ने कहा, ‘वरदान देता हूं, लेकिन विकल्प के साथ कि जब तुम चाहोगे, संकल्प मात्र से इसे निष्फल कर सकोगे।’ उनके तथास्तु कहकर अदृश्य होने के साथ ही उसके रोम-रोम में आग लग गयी। तड़पने लगा वह असह्य मरण-वेदना से। बाध्य होकर शिव को फिर पुकारा। शिव ने कहा, ‘देवता जल रहे हैं जो तुम्हारे भीतर ही हैं। देवता या दानव, जो भी हैं, तुम ही हो। कोई भी जलेगा तो तुम ही जलोगे।’ उसके बाद दधीचि के पौत्र ने संकल्प लिया कि यह वरदान निरस्त हो जाए।
कहानी भले काल्पनिक हो मगर जीवन का एक महान सत्य यहां साकार हुआ है। किसी की भी पीड़ा हमारी पीड़ा है, किसी का भी विनाश हमारा विनाश है। इसलिए जीवन का सही मार्ग है इस प्रकार जीना कि उससे किसी का शोषण-उत्पीड़न न हो, दूसरे के भाग का अपहरण न हो। लेकिन इसके लिए अपरिग्रह को समझना होगा। परिग्रह चाहे वैचारिक हो या अर्थ का, यह सारे फसाद की जड़ है। परिग्रह का लोक-पक्ष संग्रह है और वही जन्मदाता है शोषण का, गरीबी का, भूख का।
संग्रह का मूल इच्छा है। इच्छा आवश्यकता से अलग चीज है। आवश्यकता है शरीर की और इच्छा है मन की। आवश्यकता है घर, कपड़ा और मकान। यह न्यूनतम ही होती है। लेकिन इच्छा की भूख कभी नहीं मिटती। इच्छाओं का अतिरेक ही संग्रह, शोषण, विषमता और हर प्रकार की अप्रमाणिकता का हेतु बनता है। भारत की वर्तमान स्थिति को देखा जाए तो सारा दृश्य अमर्यादित इच्छाओं को प्रतिबिंबित करता है। आज इसे ही समझने की जरुरत है।
प्रस्तुति:आनंद भारती