पूरी यात्रा में कहीं कोई, अल्पविराम नहीं है,

जीवन को यूं जी लेना, आसान काम नहीं है।

आचार्यश्री रूपचंद्र जी महराज भारतीय धर्म-दर्शन के विविध आयामों के विद्वतवरेण्य प्रवक्ता हैं। आपका व्यक्तित्व सदानीरा की रसगर्भ है। आपमें एक कवि की संवेदना, संत की करुणा, मनीषी की पारमिता दृष्टि, लोकनायक की उत्प्रेरणा, समन्वय तथा शांति के मसीहा की निर्मल भावना विविध रूपों में मुखरित है। आपकी जीवनधारा में साधना, स्वाध्याय, पद यात्राएं, मनीषियों से सम्पर्क, लोक जीवन में शाश्वत मानवीय मूल्यों के उन्नयन की प्रेरणा, इन सबका समवेत प्रसार तथा विकास होता रहा है।

पूर्वाश्रम परिचय

आचार्यश्री रूपचंद्र जी का जन्म भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को विक्रमी संवत 1996, तदुनसार 22 सितंबर 1939 को राजस्थान के सरदारशहर के प्रसिद्ध मारवाड़ी सेठ परिवार में हुआ था। आपके दादा भीखमचंद जी संपन्न सिंधी ओसवाल परिवार के थे और पूरे शहर में उनका प्रभाव था। आपके पिता का नाम जयचंदलाल और माता का नाम पांची देवी था। आप भाई शुभकरण, बहन सोहनी बाई व सुवटी बाई, भाई रतनलाल के बाद माता पिता की पांचवीं संतान थे। आपका राशि नाम फूलचन्द्र रखा गया था लेकिन दादा भीखमचंद जी ने बालक के रूप की ओजस्विता को देखकर रूपचंद्र कर दिया। जन्म के बाद जब आपके दादा ने स्थानीय पंडित को कुंडली दिखवाई तब पंडित ने घोषणा कि यह बालक तो योगी है। यह तीन जन्मों से योगी पुरुष है। वैरागी जीवन व्यतीत करेगा। अरण्यवासी रहेगा, इसे वाक-सिद्धि प्राप्त होगी। यह हमेशा अजपा जाप रहेगा। (प्रभु में लीन रहेगा।) यह बालक सत्यवादी, अहिंसक, उपदेशक व ऋद्धि-सिद्धिवान होगा। इसके ज्ञान चक्षु खुलेंगे सबसे विरक्त रहेगा, खूब यात्राएं करेगा। प्रकाश के प्रसाद को जन-जन में बांटेगा।’ हालांकि, दादाजी ने यह बात परिवार में नहीं बताई। 

परिवार की संपदा, मां और बड़ी भाभी के वात्सल्य के बावजूद बालक रूपचंद्र संसारी गति में रमे नहीं। विद्यालय की व्यवस्था भी उन्हें कुछ खास नहीं रुची। उन्हें कुछ रुचा तो वह था, निःसीम आकाश। वह अक्सर आकाश को निहारते रहते। आकाश को छूने का एक मार्ग उन्होंने खोज लिया था, वह थी पतंगबाजी। परिवार पर वयोवृद्ध जैन संत मगन मुनि की कृपा थी। उनके यहां होने वाले सत्संग में आपकी रुचि सधी। और, 1952 में तेरापंथ के संघ प्रमुख आचार्यश्री तुलसी के सरदारशहर आगमन पर आपने उनके समक्ष दीक्षा की कामना रखी। आचार्यश्री ने आपकी आयु को देखकर निर्णय परिवार की सहमति पर छोड़ दिया। आपने परिवार में जब मुनि दीक्षा का संकल्प साझा किया तो परिवार इस पर सहमत नहीं था। लेकिन, आपके संकल्प की दृढ़ता के समक्ष सबको नमित होना पड़ा। कोई और रास्ता न देखकर जन्म के समय पंडित की ओर से की गई भविष्यवाणी का राज भी दादा भीखमचंद जी ने पिता को बताया। और अंत में मगन मुनि जी के आदेश पर पिता ने भी अपनी सहमति दे दी। 13 वर्ष की आयु में आपने आचार्यश्री तुलसी के समक्ष गाकर अपनी दीक्षा अर्जी प्रस्तुत की और आचार्यश्री की कृपा से जैन मुनि की दीक्षा प्राप्त की। आचार्यश्री तुलसी भी उनकी विलक्षणता को लेकर सजग थे और मुनि जीवन में उनपर आचार्यश्री की विशेष कृपा रही।

मुनि जीवन

मुनि के रूप में दीक्षित होने के बाद आचार्यश्री ने संपूर्ण भारत और नेपाल की पदयात्रा की। करीब 50 हजार किमी की पदयात्रा के दौरान आपका समकालीन दार्शनिकों, संतों व दिव्य विभूतियों से विचार विनिमय होता रहा। इस क्रम में आचार्य रजनीश (ओशो), जिद्दू कृष्णमूर्ति, दलाई लामा और मदर टेरेसा से आपकी आत्मीय बैठकें व संवाद होते रहे। इस दौरान आपने जैन व सनातन वाङ्गमय का अध्ययन व अनुशीलन किया। संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, राजस्थानी अनेक भाषाओं में प्रवीण आचार्यश्री ने विभिन्न स्रोतों व आचार्यों से दर्शन, मनोविज्ञान, विज्ञान, समाजशास्त्र व विभिन्न धर्म स्रोत साहित्य का अध्ययन किया। आपने देश के विभिन्न क्षेत्रों में यात्रा के दौरान अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों को लोकमानस के साथ साझा किया। इस क्रम में अनेक सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक व्यक्तित्व आपसे प्रभावित हुए। जिसमें पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी, शंकर दयाल शर्मा जी, वीवी गिरी जी और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी प्रमुख हैं।