मुनि रूपचन्द्रजी की आस्था, जिस तरह आहिस्ता-आहिस्ता अपने अक्षरों से अहिंसा के रहस्य को खोलती है, हर रज-कण में उतरती है, हर जल-कण में भीगती है, प्रलय और विनाश के अन्तर को दिखाती है, और हिंसा की उस नींव की ओर संकेत करती है, जिस नींव पर हमारी संस्कृति का निर्माण हुआ है, तो कह सकती हूं कि मुनि जी की आस्था ने सचमुच वह अग्नि स्नान किया है, जिससे वह भय मुक्त, सीमा मुक्त और काल-मुक्त हो पाई है।…अहिंसा में उनकी आस्था, जैन परम्परा से जरूर आई होगी, पर जो ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह तब तक अपना नहीं होता जब तक वह अपने अनुभव में नहीं उतरता। और, अहसास होता है कि उनकी आस्था सिर्फ संस्थाई और संस्कारित आस्था नहीं है, उनकी आस्था में गहरी जिज्ञासा, संकल्प, संवेदना, तर्क, चिन्तन, चेतना और कठिन साधना का अग्नि स्नान किया है।

-- अमृता प्रीतम, ज्ञानपीठ व साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखिका

आचार्य रूपचन्द्र जी की अभिव्यक्तियां इतनी स्पष्ट, निष्कर्षात्मक और दो टूक हैं कि इनके लिए किसी भूमिका की जरूरत नहीं। रूपचन्द्र जी एक जैन मुनि हैं, इसलिए अध्यात्म और धर्म क्षेत्र से जुड़े हैं। पर उनकी अभिव्यक्तियां विद्रोही विचारक जैसी लगती हैं। यही वह विभाजन रेखा है जो उन्हें काव्य-रचना की प्रेरणा देती है और उन्हें मध्यकालीन संतों के साथ जोड़ती है। कबीर की अनेक उक्तियों की छायाएं रूपचन्द्र जी की कविताओं में मिल जाएंगी। कबीर जिस प्रकार बाह्याचारों और धर्म के आडंबरों का खंडन करते हैं, रूपचन्द्र जी भी उसी प्रकार करते हैं। वे धर्म के पतन का कारण धर्म के ठेकेदारों को ही मानते हैं और यहां तक कहते हैं कि इन आडंबरों से स्वयं ईश्वर के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। वे पंथ की दीवारों के विरोधी हैं। वे धर्म की आत्मा को पहचानने पर जोर देते हैं तथा उसे विज्ञान से जोड़ते हैं। उनके अनुसार सच्चा धर्म सत्य, अहिंसा, करुणा और पराई पीर को महसूस करना है। रूपचन्द्र जी के अनुसार वह जिंदगी व्यर्थ है जो पैसे के गुणा भाग में गुजर जाती है। गांधी जी जैसे आज के मनुष्य को भौतिकता की एक अंतहीन ‘पागल दौड़’ में शामिल मानते थे, वैसे ही रूपचन्द्र जी भी महसूस करते हैं।  उनकी रचनाओं में एक संत कवि की आधुनिक काव्य-संवेदना है।  

--प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष

आध्यात्मिक अनुभवों की भूमि से गुजरने वाले कवियों की गाथा भारतीय स्मृति में स्थायी रूप से बसी हुई है। उनमें अपने सहज, अकृत्रिम, सरलरूप में संप्रेष्य पदावली रचने वाले सृजेताओं में मुनि रूपचन्द्र का नाम अग्रणी है। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से तो बाद में जानने लगा किन्तु बीसवीं शताब्दी के जिन वर्षों में मैंने लिखना आरम्भ किया था साठ के ही दशक से मुनि रूपचन्द्र को, एक युवा साधक को, कलकत्ता (अब कोलकाता) व अन्य स्थानों से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में कवि के रूप में उभरते देखा था। उनकी ओर आकर्षित होने का मुख्य कारण मुनि संज्ञा की वह पोशाक थी जो वैराग्य की भूमि का बोध कराती थी। तथापि उनकी कविताएं अपनी सरलता के कारण ही आकर्षित नहीं करती थीं उनमें उस काल की एक अदृश्य विशेषता भी झलकती थी।

-- प्रो. गंगा प्रसाद विमल, ख्यात आलोचक व साहित्यकार

एक कवि, चिन्तक तथा लेखक के रूप में आपकी अनेक कृतियां प्रकाशित हुई हैं। राष्ट्रीय दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक तथा मासिक पत्र पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केन्द्रों पर भी आपकी कविताएं, आलेख, बार्ताएं समय-समय पर प्रसारित होते रहते हैं। राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं ने आपकी रचनाओं को साहित्य जगत की विशिष्ट उपलब्धि के रूप में समीक्षित किया है। आपकी अनेक कृतियों का अनुवाद अंग्रेजी, बंगला,कन्नड़, तमिल, पंजाबी, गुजराती आदि भाषाओं में हो चुका है।

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अंधा चांद

आचार्य श्री रूपचंद जी का यह प्रथम काव्य संग्रह है जोकि भारतीय ज्ञानपीठ से 1964 में प्रकाशित हुआ। कन्हैयालाल सेठिया जी के शब्दों में, “‘अन्धा चांद’ की कविताओं में परम्परागत काव्योचित शिल्प का विघटन हुआ है पर अगर शिल्प अपने मूल अर्थ में सहज का ही पर्यायवाची है तो यह विघटन काव्य के लिए स्वस्थता का ही चिह्न है, अस्वस्थता का नहीं। छिद्रान्वेषियों के लिए तो आलोचित कवि की इन पंक्तियों को ही दोहरा-भर देना अलम् होगा ‘दरारों से झाँकने वाली आँखें खुले दरवाजों से नहीं झाँक सकतीं।’ नयी कविता में निहित वैयक्तिक चेतना रूढ़ और परम्परागत दायरों से विमुक्त हो कर सपनीले इन्द्र धनुषों की छाँह में सत्य के आवर्तों को आलिंगन में भरती हुई सरित गति से आज जिस सामूहिक चेतना के पारावार की ओर अग्रसर हो रही है, यह अत्यन्त शुभ लक्षण है। इस गतिशीलता से उस व्यापक नैतिक दायित्व का उदय अनिवार्य है जिस की ओर युग- मानव के तृषित नेत्र दीर्घकाल से लगे हुए हैं। इस अनिवार्यता में ‘अंधा ‘चांद’ के कवि की अटूट आस्था है तभी तो वह कहता है कि ‘यदि तुम्हारा मन टूटा हुआ है तो धरती के टुकड़े तो कम से कम मत करो।’ चेतना की परिधि का यह इच्छित विस्तार उन नये मूल्यों को स्थापित कर सकेगा जिन के साथ समस्त मानवता का भविष्य जुड़ा हुआ है।

कला-अकला

कला का निष्कर्ष अ-कला है। शब्द का निष्कर्ष अ-शब्द हैं। व्यक्ति का निष्कर्ष अ-व्यक्ति है। इस कविता संग्रह में ऐसे ही गहन चिंतन की पृष्ठभूमि पर लिखी कविताओं का संकलन है। आचार्य श्री रूपचंद जी ने अपना यह कविता संकलन अपने पूज्य गुरुदेव आचार्य तुलसी जी को समर्पित किया था।

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आचार्य श्री रूपचंद जी का यह प्रथम काव्य संग्रह है जोकि भारतीय ज्ञानपीठ से 1964 में प्रकाशित हुआ। कन्हैयालाल सेठिया जी के शब्दों में, “‘अन्धा चांद’ की कविताओं में परम्परागत काव्योचित शिल्प का विघटन हुआ है पर अगर शिल्प अपने मूल अर्थ में सहज का ही पर्यायवाची है तो यह विघटन काव्य के लिए स्वस्थता का ही चिह्न है, अस्वस्थता का नहीं। छिद्रान्वेषियों के लिए तो आलोचित कवि की इन पंक्तियों को ही दोहरा-भर देना अलम् होगा ‘दरारों से झाँकने वाली आँखें खुले दरवाजों से नहीं झाँक सकतीं।’ नयी कविता में निहित वैयक्तिक चेतना रूढ़ और परम्परागत दायरों से विमुक्त हो कर सपनीले इन्द्र धनुषों की छाँह में सत्य के आवर्तों को आलिंगन में भरती हुई सरित गति से आज जिस सामूहिक चेतना के पारावार की ओर अग्रसर हो रही है, यह अत्यन्त शुभ लक्षण है। इस गतिशीलता से उस व्यापक नैतिक दायित्व का उदय अनिवार्य है जिस की ओर युग- मानव के तृषित नेत्र दीर्घकाल से लगे हुए हैं। इस अनिवार्यता में ‘अंधा ‘चांद’ के कवि की अटूट आस्था है तभी तो वह कहता है कि ‘यदि तुम्हारा मन टूटा हुआ है तो धरती के टुकड़े तो कम से कम मत करो।’ चेतना की परिधि का यह इच्छित विस्तार उन नये मूल्यों को स्थापित कर सकेगा जिन के साथ समस्त मानवता का भविष्य जुड़ा हुआ है।

इंद्रधनुष

1970 में प्रकाशित काव्य संग्रह में जीवन से सहज संवाद करने वाली कविताओं को शामिल किया गया है। कवि की सतरंगी कल्पनाओं का साकार इन कविताओं में उभरा है।

भूमा

1976 में प्रकाशित इस कविता संग्रह में आचार्य रूपचंद जी की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन किया गया है। 

“भूमा का कवि जाग्रत जिजीविषा का कवि है, पर उसकी जिजीविषा भौतिक एषणाओं से समावृत न होकर जिस सम्यकत्व की ओर अभिप्रेरित और प्राणवान शक्ति से अनुप्राणित है, वह है आत्मोपलब्धि की खोज। यही उसके रहस्य चिंतन की मूल प्रक्रिया है। कवि इसी चिंतन प्रक्रिया के मध्य अपनी अनुभूतियां बटोर कर संजोता है और उन्हें प्रकृत भावभूमि पर प्रतिष्ठित कर सशक्त और सार्थक दृष्टि से मानवीय उत्कर्ष तक ले जाने की चेष्टा करता है।”

किस संबोधन से पुकारूं?

इस कविता संग्रह में संकलित कविताओं का सर्जन-सूत्र सन 1976 में आचार्य श्री रूपचंद जी के नेपाल स्थित विराटनगर में चातुर्मास प्रवास से जुड़ा है। क्षण से शाश्वत की ओर होने वाली यात्रा और क्षर से अक्षर की ओर होने वाली अंतर्यात्रा की पद-ध्वनियों को इसमें बांधा गया है। यह काव्य संकलन जयपुर में आकर पूरा हुआ। यह संकलन गजल के स्वर में रचा गया है।

भीड़ भरी आंखें

यह कविता संग्रह है, जो आचार्य श्री रूपचंद जी ने मुनि जीवन के दौरान लिखी थीं। इस संकलन में आपकी करीब 4 वर्षों के बीच लिखी गई कविताओं को शामिल किया गया है। संकलन की कविताओं में प्रज्ञा और संवेदना के बाह्य अंतर्द्वंद और भीतरी ऐक्य को समवेत स्वर दिए गए हैं।

सुना है मैंने आयुष्मन्!

यह आचार्य श्री रूपचंद जी के दार्शनिक निबंधों का संग्रह है। इन निबंधों में भगवान महावीर के दर्शन को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। महावीर के उपदेश को संकलित करने वाले गणधर सुधर्मा के प्रतिज्ञान ‘सुना है मैंने आयुष्मन्! भगवान ऐसा कहते हैं’ को आपने इस पुस्तक का शीर्षक बनाया है।

तलाश एक सूरज की

आचार्यश्री कहते हैं, “आदमी के संपूर्ण इतिहास में अंधकार युग सदा चिंता का विषय रहा है। सदा प्रकाश की प्रतीक्षा रही है। ज्योति की इस महायात्रा पर बचपन से चलता आ रहा हूं। महायात्रा में अनजाने मोड़ भी आते हैं, बाधाएं भी आती हैं, पड़ाव भी आते हैं, कभी उत्साह से मन भर जाता है तो कभी थकान से विश्राम भी चाहता है। जाने पहचाने चेहरे मुंह मोड़ लेते हैं तो अनजाने चेहरे अपने भी बन जाते हैं। अपना सब कुछ उत्सर्ग करने वाले भी मिलते हैं। तो समय का लाभ उठाने वाले भी मिलते हैं और यह हम सब के अनुभव हैं ऐसी ही अनुभूतियों से उपजी कविताओं का संकलन है ‘तलाश एक सूरज की’।

वो क्या जाने पीर पराई

यह पुस्तक आचार्य श्री रूपचंद जी ने अपने 51वें वर्ष प्रवेश पर पूरी की। इसमें समाविष्ट आलेख प्रवचन शैली में लिखे गए हैं जिससे पाठकों को प्रवचन और निबंध में मिश्रित शैली का स्वाद मिलता है। पुस्तक की प्रमुख प्रयोजनीयता यही है कि व्यक्ति संप्रदाय से नहीं धर्म से जुड़े, पंथ से नहीं सत्य से जुड़े, माटी से नहीं ज्योति से जुड़े और गुरु के नाम पर किसी व्यक्ति से नहीं स्वयं से जुड़े।

उड़ती हुई दिशाओं में

‘उड़ती हुई दिशाओं’ में आचार्य रूपचंद जी की विविध काल खंडों में लिखी गई रचनाओं का संग्रह है। इन कविताओं के भीतर तक झांकने पर प्रतीत होता है कि यह कविताएं कवि के अंतस में पलने वाले विवश अंतर्द्वंद की अभिव्यक्तियां हैं।

रूपायन

रूपायन आचार्य रूपचंद्र जी की उन कविताओं का संग्रह है जिनका प्रयोग वह अपने प्रवचनों के बीच करते रहते हैं। 

आचार्य जी के ही शब्दों में, “इसके पीछे मुख्य प्रेरणा उस भारतीय समाज की है जो आज अपने देश से दूर, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों में बस गया है। केलिफोर्निया हो या टेक्सास, शिकागो हो या न्यूयार्क, टोरंटो हो या मांट्रियल, लंदन हो या बर्मिघम जहां भी इन वर्षों में जाना हुआ है, वहाँ विविध विषयों पर प्रवचन वार्ताएं अवश्य आयोजित होती रही है। साथ ही प्रवचनों में विषय-प्रसंग के अनुरूप कविताओं का भी प्रयोग हुआ है और टेक्सास समाज की तरह हर नगर के जन-समुदाय ने उन कविताओं का भरपूर आनंद लिया है। भाषा की कठिनाई के कारण जो लोग प्रवचनों का पूरा आनंद नहीं ले पाते हैं। उन्हें भी कविता रस में आंनद विभोर देखा गया है।” यह कविता संग्रह में प्रमुखतः उन्ही कविता रचनाओं का संकलन है।

रूपान्तर

इस काव्य-संग्रह में अनेक ऐसी कविताएं हैं, जो संश्लिष्ट है, यानी जिनमें मार्मिक अनुभव बिम्बों और विचारों की सुंदर सहयात्रा होती है और कविता का अर्थ बिन्दु पर सिमटा नहीं होता बल्कि पूरी कविता में व्याप्त होता है। इनमें विविध प्राकृतिक और मानवीय रंगों के प्रति प्रगाढ़ लगाव के द्वारा आध्यात्मिक मुक्ति की व्यंजना होती है। इस संग्रह की अपेक्षाकृत लंबी कविताएं इसी संश्लिष्टता से गुजरने वाली प्रभावशाली कविताएं हैं।

केवल तुम नहीं हो

आचार्य श्री रूपचंद जी के प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन 2018 में प्रकाशित हुआ। 

इस संग्रह में कुछ पुरानी लेकिन प्रभात के शबनम की तरह हमेशा ताजी और कुछ हाल के वर्षों में रची गई कविताओं का संकलन है। ख्यात आलोचक और साहित्यकार प्रो. गंगाप्रसाद विमल जी ने इस संकलन के लिए लिखा है, “बहुत ही सहज, सम्प्रेष्य भाषा में कबीर की परंपरा की याद दिलाते हुए मुनि रूपचंद ने साहित्य के अधिक गंभीर पक्षों पर भी प्रहार किया है। साथ ही साथ विश्व की तमाम दूसरी विचारणाओं के समर्थकों को अपने मूल की पुनर-व्याख्या की भी प्रेरणा दी है। सहज भाव से लिखी उनकी अनेक पंक्तियां भविष्य कथन की तरह हैं। इनमें केवल पद के अर्थ की परिसीमा व्यंजित नहीं की गई है अपितु पदान्तों में आश्चर्य की एक महीन उपस्थिति से मुनि रूपचंद ने अपने आचार्यत्व का भी परिदर्शन कराया है।”

अहिंसा है जीवन का सौंदर्य

यह आचार्य रूपचंद जी के दार्शनिक निबंधों का संग्रह है। जिसमें आपने अहिंसा के विभिन्न आयामों और उसके जीवन से सहकार को प्रतिष्ठित किया है। इस पुस्तक की भूमिका में ज्ञानपीठ व साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखिका अमृता प्रीतम कहती हैं, “इस पुस्तक का अक्सर अक्सर मुनि रूपचंद जी की अंतर्वेदना से निकला है इसलिए मैं मानती हूं कि पढ़ने वाले की रग-रग में तरंगित हो जाएगा।”

प्रीत नहीं की प्रभुवर से

जो प्रेरणा हजार प्रवचनों से मन को नहीं मोड़ पाती है, वह भजन के दो बोल से मन को संसार से मोड़ देती है। 

जो सद्भावना और प्रेम-भाईचारा हजार उपदेशों से समाज के दिलों में नहीं जाग पाता है, वह भजन की दो पंक्तियों से पूरे समाज के टूटे दिलों को जोड़ देता है। संक्षेप में कहें तो भजन हमें आत्मा और परमात्मा से जोड़ता है, देश और समाज से जोड़ता है, गहरे ज्ञान और प्रेम सद्भावना से जोड़ता है और अपने आप से जोड़ता है।
कुछ ऐसे ही मर्मस्पर्शी और तत्व-स्पर्शी भजनों का संग्रह है ‘प्रीत नहीं की प्रभुवर से’। पुस्तक में इन गीतों और भजनों के रचयिता है पूज्य आचार्यश्री रूपचन्द्र जी तथा पूज्या प्रवर्तिनी साध्वी श्री मंजुला श्री जी महाराज। इन भजनों में प्रभु भक्ति भी है, जीवन प्रेरणा भी है, तत्व-दर्शन भी है, सांप्रदायिक सद्भावना भी है और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए उद्बोधन भी।

हंस अकेला

यह आचार्यश्री रूपचंद जी की उपन्यास शैली में लिखी जीवन गाथा है। जिसे यह स्वरूप डॉ. विनीता गुप्ता जी ने दिया है। पुस्तक का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है।