आचार्यश्री लोकपंथाध्यास मुक्त शाश्वत धर्म के प्रवक्ता हैं। आपने साधुता को पर्याय व परिभाषा में नहीं, उसकी सत सत्ता में ही स्वीकार किया। आत्म और लोक को अभेद पहचाना है। आपके उद्गार में महावीर के भावना योग,  कृष्ण के समत्व योग, बुद्ध की करुणा, ईसा मसीह के प्रेम, कन्फ्यूशियस की संगति, लाओ-त्से के ताओ, सुकरात के आत्मदर्शन,  टॉलस्टॉय के प्रभु का राज्य और कृष्णमूर्ति के अवेयरनेस विदाउट चॉइस का समवेत उभरता है।

- डॉ. अरुण प्रकाश, दार्शनिक-निबंधकार

आचार्यश्री रूपचंद्र महराज ने साधुता के लिए किसी परंपरा को आवश्यक नहीं माना। उन्होंने परंपरा के प्रवाह में यात्रा की, उसके समानांतर भी चले..उसे साक्षी होकर बहते-बीतते देखा। और, इसी से उन्हें पारमी दृष्टि मिली जो समाज व साधुता के लिए दैव आयोजन सी थी। 

आपकी दीक्षा जैन धर्म के तेरापंथ में हुई थी। आपने मुनि जीवन में उसकी परंपराओं का पालन किया। इसी क्रम में आपने अनुभव किया, “हर युग अपनी पूर्ववर्ती परम्परा के आगे एक चुनौती होता है। वह जो सामयिक है, उसके प्रवाह में बह जाता है, उसका स्थान कुछ नया ले लेता है। वह जो शाश्वत है, सदा अचल एवं अपरिवर्तित रहता है। पर्याय बदलते हैं तत्त्व अविनाशी है। पर्यायों का परिवर्तन तत्व की अपरिवर्तनशीलता के साथ अटूट रूप से आबद्ध है तत्व की अपरिवर्तनशीलता ही पर्यायों के सतत परिवर्तन का अक्षय स्रोत है। दोनों का अविनाभाव सम्बन्ध है। इसे दृष्टिगोचर न रख पाने के कारण ही हम या तो पर्यायों को भी परिवर्तित होने से रोकने का असफल प्रयत्न करते हैं या तत्व को भी परिवर्तित करने का प्रयास कर पथच्युत हो जाते हैं। जड़वादी अपरिवर्तनशीलता मृत्यु की प्रतीक है। अविवेकी परिवर्तन का उन्माद भी विनाश का ही संसूचक है। सत्य है सम्यक दृष्टि, जो सम्यक ज्ञान एवं चारित्र्य की आधारशिला है।” आपने पंथ की जड़वादी अपरिवर्तनशीलता की ओर आचार्यों व युग का ध्यान आकृष्ट किया। 

पर्यायों को पकड़े पंथ को गतिशील बनाने के लिए आपने उन परंपराओं का नवतेरापंथ के रूप में प्रवर्तन भी किया। आचार्यश्री ने लोक और आत्म के अभेद की प्रतिष्ठा की। मानव के मुक्ति का माध्यम मानव को ही स्वीकार किया। और, मानव मंदिर की परिकल्पना दी। पंथ के आधार पर बंटे मनुष्यों को मनुजता के आधार पर जुड़ने का आह्वान किया। और, कालअध्यास में फंसे पंथों को सम्यक दृष्टि दी। 

पंथ के अविवेकी दोहराव के विपरीत आपका जोर आत्मानुभव व अंतश्चेतना की क्रांति पर रहा है। आपने अपनी साधना में पाया कि बाहरी आह्वान, आदेश या अभ्यास से आत्मानुभव असंभव है। वहीं, दमनमूलक प्रज्ञा से अंतश्चेतना की क्रांति नहीं घट सकती। 

 

आप कहते हैं, हमारी संयम प्रकल्पना दमनमूलक है। व्यवहार के स्तर पर हिंसा का दमन हमारे लिए अहिंसा है। वाणी के स्तर पर असत्य का दमन हमारे लिए सत्य है। व्यवहार के स्तर पर चोरी का दमनमूलक परिहार हमारे लिए अस्तेय है। आचरण के स्तर पर संग्रह का दमनमूलक परिहार हमारे लिए अपरिग्रह है। सेक्स का शारीरिक स्तर पर निग्रह हमारे लिए ब्रह्मचर्य है। इन सबसे आदमी नैतिक हो सकता है, धार्मिक नहीं। नैतिकता का सम्बन्ध सामाजिक व्यवहार के क्षेत्र से है। समाज की सत्ता व्यक्तियों के पारस्परिक समायोजन पर टिकी है। किसी व्यक्ति के आचरण से सब व्यक्तियों के सामूहिक हित का हनन न हो, वही सामाजिकता का मूल सूत्र है। अतः नैतिकता बाह्य आचार पर टिकी है। उसकी भावभूमि स्वार्थ है, चाहे उसका प्रारूप सामूहिक क्यों न हो। हर व्यक्ति इसलिए दूसरे के हित का अतिक्रमण नहीं करता क्योंकि यह जानता है कि ऐसा करने पर कोई दूसरा उसके अपने हित का भी अतिक्रमण कर सकता है। यह ऊपर से ओढ़ा हुआ संयम एक निश्चित सीमा तक ही चलता है। इससे व्यक्ति अन्तश्चेतना के स्तर पर आत्म-प्रबंधक और लोक-प्रवंचक ही रह जाता है। नैतिकता अधिक से अधिक हमारे ऊपरी व्यवहार का ही संस्पर्श कर पाती है। भीतर का व्यक्ति वही वह वही रह जाता है। धर्म ऊपरी आचरण को महत्ता नहीं देता यदि उसका स्रोत अन्तश्चेतना से सीधे न जुड़ा हो। ऊपरी आचरण के स्तर पर एक व्यक्ति सदाचारी और नैतिक हो सकता है। अन्तश्चेतना के स्तर पर वही व्यक्ति दुराचारी तथा अनैतिक हो सकता है। धर्म की कसौटी पर वह खरा नहीं उतरता। धर्म अन्तश्चेतना की क्रान्ति है-मन का समूल परिवर्तन।

आपने अहिंसा को जीवन का सौंदर्य पहचाना। आपके देखे, अस्तित्व का प्रवाह सर्वत्र एक है। उसमें सचेतन और अचेतन का भी भेद नहीं है। अपना और पराया जैसा भी यहां कुछ नहीं है। इसलिए किसी को ‘पर’ मानना ही हिंसा है। अस्तित्व के प्रवाह का अद्भुत अनुभव ही अहिंसा की चरम परिणति है, उस अनुभव में नकार से प्रारम्भ अहिंसा अपने प्रखर सकारात्मक स्वरूप में प्रकट हो जाती है। सृष्टि के सम्पूर्ण जीवन के साथ वहां तादात्म्य अनुभूति का विराट् सागर लहराने लगता है। द्वैत के गिरते ही हिंसा स्वयं गिर जाती है। रह जाती है केवल अद्वैत अनुभूति, अहिंसा ही  अहिंसा। और, द्वैत से लेकर अद्वैत अनुभव की सम्पूर्ण यात्रा को अगर किसी एक शब्द में बांधा जा सकता है, वह है अहिंसा, नकार से लेकर सम्पूर्ण साकार को अपने में समेटे, केवल अहिंसा।