भीतर में अगर संसार नहीं है तो बाहर के संसार में ऐसा कुछ नहीं है जो हमें बांध सके। भीतर में अगर संसार है तो बाहर के संसार को, धन-परिवार-वस्तु-पद आदि को छोड़कर भी हम मुक्त नहीं हो सकते। भीतर की पकड़ ही संसार है।

-आचार्यश्री रूपचंद्र जी महराज

पूरी यात्रा में कहीं कोई, अल्पविराम नहीं है,

जीवन को यूं जी लेना, आसान काम नहीं है।

आचार्यश्री रूपचंद्र जी महराज भारतीय धर्म-दर्शन के विविध आयामों के विद्वतवरेण्य प्रवक्ता हैं। आपका व्यक्तित्व सदानीरा की रसगर्भ है। आपमें एक कवि की संवेदना, संत की करुणा, मनीषी की पारमिता दृष्टि, लोकनायक की उत्प्रेरणा, समन्वय तथा शांति के मसीहा की निर्मल भावना विविध रूपों में मुखरित है। मात्र तेरह वर्ष की आयु में आपने जैन मुनि दीक्षा ग्रहण की। तब से ही आपकी जीवनधारा में साधना, स्वाध्याय, पद यात्राएं, मनीषियों से सम्पर्क, लोक जीवन में शाश्वत मानवीय मूल्यों के उन्नयन की प्रेरणा, इन सबका समवेत प्रसार तथा विकास होता रहा है। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं के आप ज्ञाता हैं। आपने दर्शन, मनोविज्ञान, विज्ञान, समाज शास्त्र तथा समस्त धर्मों के विविध स्त्रोतों का अध्ययन करके अपनी साधना से समन्वित उनका सार संक्षेप लोक-समुदाय के समक्ष सुगम शैली में प्रस्तुत किया है। जन-जीवन से व्यापक सम्पर्क के लिए आपने भारत तथा नेपाल में लगभग पचास हजार किलोमीटर की पद यात्राएं कर मानव धर्म के सार-सूत्रों को प्रसारित किया है। आत्म-साधना तथा लोक जागरण के इस क्रम में आचार्यश्री का सम्पर्क विचार-विनिमय तथा संगोष्ठियां- सम्मेलन राष्ट्र के प्रख्यात दार्शनिकों, आध्यात्मिक विभूतियों, कवियों, चिन्तकों तथा शीर्षस्थ राजनयिकों से होता रहा है। 

मुनि रूपचन्द्रजी की आस्था, जिस तरह आहिस्ता-आहिस्ता अपने अक्षरों से अहिंसा के रहस्य को खोलती है, हर रज-कण में उतरती है, हर जल-कण में भीगती है, प्रलय और विनाश के अन्तर को दिखाती है, और हिंसा की उस नींव की ओर संकेत करती है, जिस नींव पर हमारी संस्कृति का निर्माण हुआ है, तो कह सकती हूं कि मुनि जी की आस्था ने सचमुच वह अग्नि स्नान किया है, जिससे वह भय मुक्त, सीमा मुक्त और काल-मुक्त हो पाई है।…अहिंसा में उनकी आस्था, जैन परम्परा से जरूर आई होगी, पर जो ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह तब तक अपना नहीं होता जब तक वह अपने अनुभव में नहीं उतरता। और, अहसास होता है कि उनकी आस्था सिर्फ संस्थाई और संस्कारित आस्था नहीं है, उनकी आस्था में गहरी जिज्ञासा, संकल्प, संवेदना, तर्क, चिन्तन, चेतना और कठिन साधना का अग्नि स्नान किया है।

-- अमृता प्रीतम, ज्ञानपीठ व साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखिका

आचार्य रूपचन्द्र जी की अभिव्यक्तियां इतनी स्पष्ट, निष्कर्षात्मक और दो टूक हैं कि इनके लिए किसी भूमिका की जरूरत नहीं। रूपचन्द्र जी एक जैन मुनि हैं, इसलिए अध्यात्म और धर्म क्षेत्र से जुड़े हैं। पर उनकी अभिव्यक्तियां विद्रोही विचारक जैसी लगती हैं। यही वह विभाजन रेखा है जो उन्हें काव्य-रचना की प्रेरणा देती है और उन्हें मध्यकालीन संतों के साथ जोड़ती है। कबीर की अनेक उक्तियों की छायाएं रूपचन्द्र जी की कविताओं में मिल जाएंगी। कबीर जिस प्रकार बाह्याचारों और धर्म के आडंबरों का खंडन करते हैं, रूपचन्द्र जी भी उसी प्रकार करते हैं। वे धर्म के पतन का कारण धर्म के ठेकेदारों को ही मानते हैं और यहां तक कहते हैं कि इन आडंबरों से स्वयं ईश्वर के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। वे पंथ की दीवारों के विरोधी हैं। वे धर्म की आत्मा को पहचानने पर जोर देते हैं तथा उसे विज्ञान से जोड़ते हैं। उनके अनुसार सच्चा धर्म सत्य, अहिंसा, करुणा और पराई पीर को महसूस करना है। रूपचन्द्र जी के अनुसार वह जिंदगी व्यर्थ है जो पैसे के गुणा भाग में गुजर जाती है। गांधी जी जैसे आज के मनुष्य को भौतिकता की एक अंतहीन ‘पागल दौड़’ में शामिल मानते थे, वैसे ही रूपचन्द्र जी भी महसूस करते हैं।  उनकी रचनाओं में एक संत कवि की आधुनिक काव्य-संवेदना है।  

--प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष

आध्यात्मिक अनुभवों की भूमि से गुजरने वाले कवियों की गाथा भारतीय स्मृति में स्थायी रूप से बसी हुई है। उनमें अपने सहज, अकृत्रिम, सरलरूप में संप्रेष्य पदावली रचने वाले सृजेताओं में मुनि रूपचन्द्र का नाम अग्रणी है। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से तो बाद में जानने लगा किन्तु बीसवीं शताब्दी के जिन वर्षों में मैंने लिखना आरम्भ किया था साठ के ही दशक से मुनि रूपचन्द्र को, एक युवा साधक को, कलकत्ता (अब कोलकाता) व अन्य स्थानों से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में कवि के रूप में उभरते देखा था। उनकी ओर आकर्षित होने का मुख्य कारण मुनि संज्ञा की वह पोशाक थी जो वैराग्य की भूमि का बोध कराती थी। तथापि उनकी कविताएं अपनी सरलता के कारण ही आकर्षित नहीं करती थीं उनमें उस काल की एक अदृश्य विशेषता भी झलकती थी।

-- प्रो. गंगा प्रसाद विमल, ख्यात आलोचक व साहित्यकार

आचार्यश्री लोकपंथाध्यास मुक्त शाश्वत धर्म के प्रवक्ता हैं। आपने साधुता को पर्याय व परिभाषा में नहीं, उसकी सत सत्ता में ही स्वीकार किया। आत्म और लोक को अभेद पहचाना है। आपके उद्गार में महावीर के भावना योग,  कृष्ण के समत्व योग, बुद्ध की करुणा, ईसा मसीह के प्रेम, कन्फ्यूशियस की संगति, लाओ-त्से के ताओ, सुकरात के आत्मदर्शन,  टॉलस्टॉय के प्रभु का राज्य और कृष्णमूर्ति के अवेयरनेस विदाउट चॉइस का समवेत उभरता है।

- डॉ. अरुण प्रकाश, दार्शनिक-निबंधकार

आचार्यश्री गहराई से महसूस कर रहे थे कि गली-मोहल्लों-नगरों में एक से बढ़कर एक विशाल मंदिरों का निर्माण तो हो रहा है। किन्तु सच्चरित्र व्यक्ति का निर्माण नहीं हो रहा। पूजा स्थल तो खूब बन रहे हैं, उनके नाम पर दंगे-फसाद भी खूब हो रहे हैं। लेकिन ठुकराया जा रहा है जीता जागता इंसान। जहाँ मानव के द्वारा मानवता को पूजा जाय, वही सच्चा मंदिर है। मानव का निर्माण ही तो मानवता की पूजा है। अगर खरा मानव नहीं तो खरा समाज कैसे बनेगा? राष्ट्र कैसे बनेगा? अगर इंसान में से इंसान ही प्रकट नहीं हुआ तो देवता और भगवान कैसे प्रकट होंगे। इसलिए इंसान का इंसान नना सबसे पहले जरूरी है और मानव मंदिर मिशन के रूप में ऐसी ही प्रयोगशाला की आधारभूमि शुरू हो गयी जहाँ व्यक्ति का निर्माण हो। इस कल्पना के मूल में उद्देश्य था धर्म की व्यापक रूप में प्रतिष्ठा। साधना के साथ समाज-सेवा। मानव मंदिर मिशन के माध्यम से यह कार्य शुरू हो गया। 

आपने पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन बंसल जी व सरदार लखविंदर सिंह जी के सहयोग से सराय काले खां के पास मानव मंदिर मिशन का दिल्ली केंद्र स्थापित किया। यह केंद्र ही एक तरह से आपके मिशन का मुख्यालय बना और आगे चलकर अनेक सेवा प्रकल्पों का समन्वय इसी केंद्र से स्थापित हुआ।

मानव मंदिर मिशन, दिल्ली के समन्वयन में कई प्रकल्पों का संचालन होता है।